राजनीतिक व्यवस्था का आशय । राजनीतिक व्यवस्था का अर्थ । अथवा राजनीतिक व्यवस्था की परिभाषा ।
उत्तर- राजनीतिक व्यवस्था की अवधारणा ‘राजनीतिक’ और ‘व्यवस्था’ इन दो शब्दों से मिलकर ही “राजनीतिक व्यवस्था’ की उत्पत्ति हुई है। व्यवस्था का अर्थ तो स्पष्ट है परन्तु साहित्य में ‘राजनीतिक’ की व्याख्या के लिये अनेक परिभाषायें मिलती हैं। राजनीतिक व्यवस्था का प्रमुख लक्षण बल प्रयोग है। मैरियन लेवी का विचार है कि शक्ति के वितरण को हम एक प्रकार से राजनीतिक दायित्व मान सकते हैं। इसमें दोनों ही तथ्य सम्मिलित हैं बलपूर्वक मान्यतायें तथा उत्तरदायित्व। उसे राज्य की भी मान्यता प्राप्त होती है और राजनीतिक शक्ति की भी। डेविड एम. वुड राजनीतिक व्यवस्था की परिभाषा के सम्बन्ध में कहते हैं कि “राजनीतिक व्यवस्था राजनीतिक रूप से प्रासंगिक समझे जाने वाले चरों की व्यवस्था हैं, मानो कि वे अन्य चरों से अलग किये जा सकते हों जो कि राजनीति के लिये तत्काल रूप में प्रासंगिक नहीं हैं, उन परस्पर सम्बन्धित चरों की एक व्यवस्था है।” दूसरी ओर राजनीतिक व्यवस्था की धारणा की उत्पत्ति के विषय में एस. एच. वियर और ए. बी. उलम की धारणा है कि “राजनीतिक व्यवस्था समस्त सामाजिक व्यवहार को देखने की
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- Debates in Political Theory
- Political Development
- Comparative Political Analysis
- Theories of International Relations
एक व्यापक प्रणाली से उत्पन्न हुई है। इस परिप्रेक्ष्य से तुलनात्मक राजनीतिक व्यवस्था एक संरचना है जो कि किसी समाज के लिये कोई कार्य करती है। थोड़े-से-थोड़े शब्दों में नीति सम्बन्धी उचित निर्णयों को करना ही वह कार्य हैं।”
व्यवस्था राजनीतिक है, कोई साधारण व्यवस्था नहीं, अतः यह आवश्यक है कि राजनीतिक व्यवस्था में, वे समस्त प्रमुख लक्षण सम्मिलित हों जो व्यवस्था में होते हैं। ‘आमण्ड और पावेल का मत है कि व्यवस्था की परिभाषा निश्चय करने के लिये निम्नलिखित कसौटियों को आधार मानना आवश्यक है-
- तत्त्वों की एक संरचना की विशिष्टता,
- वे सम्बन्ध दिखलाना जो थोड़े बहुत तत्त्वों में पहचाने जा सकें,
- उच्च सम्बन्धों में अन्य सम्बन्ध भी सम्मिलित होते हैं।
काल आयाम को सम्मिलित करके इस परिभाषा को गत्यात्मकता देना दलविहीन लोकतन्त्र दलविहीन लोकतन्त्र
उत्तर -प्रतिनिध्यात्मक अर्थात् अप्रत्यक्ष लोकतन्त्र के लिए दलीय पद्धति न केवल उपयोगी अपितु अपरिहार्य भी है। इसके अभाव में सुचारु रूप से संचालन सम्भव नहीं हो सकता है। इसके अन्तर्गत जनता अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से शासन में भाग लेती है। इसके प्रतिनिधित्व का कार्य सुचारु रूप से दलीय पद्धति के जरिये ही हो सकता है। इसके अतिरिक्त यह लोकतान्त्रिक व्यवस्था को सफल बनाने में भी अनेक दृष्टियों से योगदान करती है। यही कारण है कि आधुनिक लोकतन्त्र के लिए यह केवल उपयोगी नहीं, अपितु अपरिहार्य भी है। मेकाइवर का कहना है कि दलीय संघटन के बिना सिद्धान्तों का एकताबद्ध प्रस्तुतीकरण नहीं हो सकता, नीति का क्रमबद्ध विकास नहीं हो सकता तथा संवैधानिक उपाय नियमित रूप से अपनाये नहीं जा सकते हैं। ब्राइस ने भी आधुनिक लोकतान्त्रिक व्यवस्था में दलीय पद्धति के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए कहा है।
Name Of Collage | Jncu (Jannayak University) |
Exam Pattern | Offline |
JNCU Previous Question Paper | jncu political science (राजनीतिक व्यवस्था) / राजनीतिक संस्कृति |
राजनीतिक दल अनिवार्य हैं तथा कोई भी स्वतन्त्र देश उनके बिना रह नहीं सकता। यदि वे कुछ बुराइयाँ पैदा करते हैं तो दूसरी बुराइयों को या तो दूर या कम करते हैं। वर्क ने तो दलीय पद्धति को उसकी समस्त बुराइयों के बावजूद अपरिहार्य बतलाया है। परन्तु दूसरी तरफ ऐसे लोग भी हैं जिनकी संख्या बहुत कम है जो दलविहीन लोकतन्त्र की बात करते हैं। भारत में भी श्री जयप्रकाश नारायण ने इस विचार का प्रतिपादन किया।
राजनीतिक संस्कृति की परिभाषा ।
उत्तर- राजनीतिक संस्कृति ” वाइसमैन का कहना है कि “संस्कृति दो या दो से अधिक व्यक्तियों के समान समझने के रूप में है। यह एक व्यापक शब्द है। उसमें व्यक्ति या व्यक्ति-समूह के व्यवहार का तरीका, उसकी मान्यता, सम्मान, विश्वास, घृणा तथा भौतिक उन्नति आदि सभी शामिल हैं। इसकी जुड़ें हमारे जीवन में अत्यन्त गहरी होती हैं। इसका प्रवेश हमारे मन, मस्तिष्क, चिन्तन, भावनाओं और व्यवहार में होता है। इसका प्रभाव हमारे सचेतन एवं अवचेतन पर भी पड़ता है।” राजनीतिक संस्कृति सामान्य संस्कृति के अभिन्न अंग के रूप में है-संस्कृति को स्थायी बनने, प्रसारित होने और आजीवित रहने के लिए राजनीतिक एवं प्रशासनिक संरचनाओं का सहारा लेना पड़ता है। इन संरचनाओं एवं प्रक्रियाओं की पुनः अन्तः क्रिया भौतिक वातावरण पर होती है। इसमें शनैः-शनैः परिवर्तन होता है। jncu political science
सामान्य संस्कृति की अपेक्षा राजसंस्कृति प्रगतिशील अथवा रूढ़िवादी हो सकती है। उदाहरण के लिए भारत की वर्तमान राजसंस्कृति सामान्य संस्कृति की अपेक्षा अधिक गत्यात्मक एवं प्रगतिशील मानी जा सकती है। वर्मा, नेपाल और इण्डोनेशिया आदि इसके विलोम दृष्टान्त हैं। संस्कृति और राजसंस्कृति में क्षेत्रीय, केन्द्रीय तथा शासक एवं शासित अन्तर हो सकता है।
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